सोमवार, 12 जनवरी 2015

उम्मीद की निर्भयाएं: यौन हिंसा पर हासिल साझा चिंतन

                            
               उम्मीद की निर्भयायें: पुस्तक समीक्षा 

                                                    'दिल्ली गैंग रेप' के बाद का विमर्श
                           स्मार्ट बुक यानी साझा चिंतन

16 दिसंबर 2013 को, राजधानी दिल्ली में घटे एक वीभत्स बलात्कार कांड ने देश की सोयी हुई आत्मा को झिंझोड़ दिया। इस दुर्घटना ने मध्यवर्ग की दुखती रग को छू दिया। महिला आंदोलनों की सतत यात्रा में यह बेहद अहम पड़ाव रहा। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। बलात्कार पर केंद्रित इस आंदोलन ने स्वत:स्फूर्त ढ़ंग से प्रस्फुटित होने के बाद भी समूचे देश को हिला दिया। देश के युवा वर्ग को एकजुट होकर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिये यूं सड़कों पर उतरते देखना बिल्कुल नया था।
इस आंदोलन ने देश में एक नयी चेतना का संचार किया। विरोधाभासी भारतीय समाज के बहुत से कोने अब भी इस चेतना से अछूते हैं। फिर भी इस आंदोलन ने तय कर दिया कि बलात्कार या यौन हिंसा के मुद्दे पर जनता का बांध टूट गया है। इस आंदोलन ने एक साझे चिंतन को जन्म दिया। इस चिंतन को एक किताब के रूप में संजो कर संपादक रोहित जोशी ने इसे हमारी साझी उपलब्धि बना दिया है। पत्रकार प्राक्सीज के नाम से वेबसाइट चलाने वाले रोहित ने इन लेखों को अपनी साइट पर बेहद पसंद किये जाने के बाद किताब के रूप में संजोने का फैसला लिया। अब यह किताब उम्मीद की निर्भयायें के नाम से हम सबके बीच मौजूद है।
'यौन हिंसा' हमारे चारों फैला एक अदृश्य निर्मम सत्य है। जिसके साथ जीने और उसकी लगातार अनदेखी करने की हमने आदत डाल ली है। महिलाओं पर यौन हिंसा पूरे विश्व में एक 'दमनकारी औजार' की शक्ल अख्तियार कर चुका है। हमारे देश में मौजूद जातीय, वर्गीय और आर्थिक असमानतायों की वजह से यौन हिंसा एक महामारी की तरह फैल रही है।
यह किताब बलात्कार पर एक खोजी गाइड है जो इसके हर पहलू को संजीदगी से टटोलती है। दिल्ली गैंग रेप केस के बाद इस तरह के अनेक लेखकों और विचारकों को अपने विचार रखने का मौका मिला जो बाजार की चकाचौंध के आगे गुमनाम हो चुके हैं लेकिन उनके प्रयासों और विचारों का संघर्ष जारी है। किताब में उनके विविध सम-सामयिक विचारों को पिरोया गया है। ये आलेख, हमारे समाज की पितृसत्तात्मक संरचना में रची-बसी यौन हिंसा की ग्रंथियों की पड़ताल करते हैं। सदियों से मौजूद लैंगिक गैरबराबरी के कारणों को उघाड़ते हैं और साथ ही यौन हिंसा मुक्त, समानता की दुनिया रचने का रास्ता भी दिखाते हैं।
किताब को मुख्य रूप से 5 भागों में बांटा गया है। 19 लेखों के जरिये इस आंदोलन से जुड़े लेखकों और कार्यकर्ताओं ने अपने विचारों को हमारे साथ साझा किया है। इस आंदोलन ने समाज में महिलाओं के लिये मौजूद मुख्य दो दृष्टिकोणों को सतह पर ला दिया। एक ओर उदार पुरुषवादी चिंतन जो अपने घर की महिलाओं की यौनिक असुरक्षा को लेकर चिंतित रहता है। दूसरा चिंतन जो ज्यादा गहराई में जाकर, जड़ों में मौजूद असमानता को चीन्हता है। बेखौफ आजादी की मांग इस दूसरी धारा की मुख्य मांग थी।
दरअसल किसी आंदोलन में एकजुट हुए लोग कभी भी सोच के एक समान स्तर पर नहीं होते लेकिन आंदोलन के दौरान उनके संगठित प्रयास, वैयक्तिक विचारों के खांचे से निकल कर सामूहिक चेतना के स्तर पर पहुंचते है। ऐसे आंदोलन समाज को एक नजर देने में सक्षम होते हैं। इस दृष्टि से यह आंदोलन सामाजिक रूप से बेहद सफल रहा। इसने लोगों के बीच महिला असुरक्षा को एक केंद्रीय मुद्दे के रूप में स्थापित किया और यौन हिंसा के मूल कारणों यानी पितृसत्तात्मक संरचना के सांस्कृतिक राजनैतिक और सामाजिक पक्ष को चर्चा कें केंद्र में ला दिया।
किताब की शुरुआत में ही दो चर्चित बलात्कार कांड पीड़िताओं के पत्र दिये गये हैं जिसमें उनका संघर्ष, जीवटता, घटना से उपजी निराशा पर सबसे बढ़ कर उम्मीदें है। सोहेला और सूर्यानेल्ली की लड़की की कहानियां खुद ब खुद हमें उनकी पीड़ा से जोड़ती हैं। शुरुआती अध्याय इस उबाल के मायने में आंदोलन में सक्रिय दो राजनीतिक लेखक क्रमश: कविता कृष्णन और आनंद प्रधान के आलेख हैं।  
तीसरे अध्याय में बलात्कार का समाजशास्त्रनाम से मोहन आर्या का विस्तृत आलेख है। मोहन आर्या यौन हिंसा को सामाजिक-राजनैतिक संरचना में मौजूद आर्थिक-लैंगिक गैरबराबरी का परिणाम मानते हैं इसलिये इसके नाश के लिये भौतिक ढ़ांचे को नष्ट करना जरूरी मानते हैं। अन्य आलेखों में धर्म से लेकर भाषा, मीडिया और संस्कृति की पड़ताल है कि किस तरह यह सभी पितृसत्तातमक समाजों में एक महिला विरोधी उपकरण में तब्दील हो जाते हैं।
रेप बनाम बलात्कार यानी चौथे अध्याय में इंडिया बनाम भारत में मौजूद यौन हिंसा या बलात्कार के विविध पहलुओं और संस्तरों की जांच की गयी है। इन आलेखों से साफ जाहिर होता है कि पुरुष वर्चस्व पर आधारित सामंती और पूंजीवादी समाज, महिला को बराबरी का दर्जा देने में अक्षम हैं। परिवार हो या राज्य महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा का इस्तेमाल उन्हे लगातार दोयम स्थिति में रखने के लिये किया जाता है। राज्य तंत्र जैसे पुलिस, विधायिका और डॉक्टरों ने दोयम सोच को एक औजार का रूप में विकसित कर लिया है। इस तरह लोकतंत्र में महिलाओं को उनके अधिकारों की दावेदारी से रोकने के लिये यौन हिंसा का बार-बार इस्तेमाल किया जाता है। 
जाति हो या पैसा, रसूख वाले बलात्कारियों के आगे हमारी न्याय व्यवस्था को लकवा मार जाता है। इसलिये न्याय व्यवस्था, यौन हिंसा के खिलाफ कितनी कारगर है और उसकी सीमायें क्या है, जे एस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट की पड़ताल के जरिये इस मुद्दे को बारीकी उठाया गया है। इसके अलावा टू फिंगर टेस्ट जैसे मेडिकल परीक्षण अभी तक महिलाओं के चरित्र पर सवाल उठा कर कैसे सालों से बलात्कार को जायज़ ठहराते आये हैं और महिलाओं को पुरुषों के अपराधों की सजा देते आये हैं, इसका विश्लेषण भी अंतिम और बेहद जरूरी आलेख में मौजूद है।
यह किताब युवा पीढ़ी और वर्तमान समाज के लिये एक स्मार्ट बुक है जो इन विचारशील लेखकों से हमारा संपर्क जोड़ती है। हमारे समय के सबसे ज्वलंत प्रश्नों पर लेखकों के विचारों संजोने के कारण यह बुक खास यानी स्मार्ट हो गयी है। यह आलेख, उनके विचारों के शॉर्ट नोट्स हैं। इनसे महत्वपूर्ण सवालों को सुलझाने की दिशा मिलती है। साझे चिंतन से उपजी यह किताब मौजूदा समाज की यौन हिंसा पर सामूहिक संवेदनशील चिंतन विकसित करने की खास जरूरत को पूरा करती है।



 यह आलेख अपने मूल स्वरूप में गांव-जहान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। यहां पर इसके कुछ अंशों को संपादित करके डाला गया है। यहां साझा करने का उद्देश्य अपने सभी आलेखों को एक जगह संजोना है।  

विदेशी मदद और संदेह, निशाने पर केवल एनजीओ????

यह आलेख पिछले साल गैर सरकारी संगठनों के काम-काज पर संदेह व्यक्त करने वाली आई बी की एक रिपोर्ट आने के बाद लिखा गया था और एक हिन्दी पत्रिका गांव-जहान में प्रकाशित हो चुका है। इस बहस में इन दिनों आया परिवर्तन यह है कि दो दिन पूर्व 'ग्रीनपीस' की महान के जंगलों में काम कर रही कैंपेनर प्रिया पिल्लई को दिल्ली हवाई अड्डे से ब्रिटेन के लिये उड़ान पकड़ने पर भारत सरकार ने रोक लगा दी जबकि उनके पास सभी आवश्यक कागजात थे और उनकी यात्रा का उद्देश्य ब्रिटेश कंपनी एस्सार के मध्य प्रदेश के महान जंगलों में की जा रही गतिविधियों के बारे में ब्रिटिश संसद को संबोधित करना था। भारत सरकार ने एक बार फिर प्रिया पिल्लई पर रोक लगाकर इस प्रश्न को प्रासंगिक बना दिया है कि खुद चुनावी चंदे के रूप में विदेशी संस्थाओं से हजारों-करोड़ों लेने वाली ये राजनीतिक पार्टियां, आम भारतीय जनता को आई बी की रिपोर्ट दिखा कर एनजीओ को संदिग्सध कैसे बता सकती हैं? इसी बहस को ताजा करने के उद्देश्य से यह आलेख साझा कर रही हूं।

                       विदेशी चंदा: एनजीओ या धंधा

एनजीओ को मिल रही विदेशी मदद को सेकर सरकार सशंकित लेकिन खुद ले रही है चुनावी चंदा

हाल ही में, आई बी की मीडिया में लीक हुई रिपोर्ट ने देश में गैर सरकारी संगठनों के काम-काज और तौर-तरीकों पर बड़े अहम सवाल खड़े किये हैं। इस रिपोर्ट में कुछ एनजीओ को विदेशी धन का इस्तेमाल कर देश की बड़ी विकास परियोजनाओं को रोकने का आरोप लगाया गया है। इस रिपोर्ट में यह भी अनुमान व्यक्त किया गया है कि ये राष्ट्रीय, अंतरार्ष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन देश की घरेलू विकास दर को बड़े स्तर पर प्रभावित कर रहे हैं और देश विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं। ग्रीनपीस, एमनेस्टी इंटरनेशनल, पीयूसीएल और एक्शन फॉर ऐड जैसे नामी-गिरामी एनजीओ के नाम इस रिपोर्ट में हैं और उनके कुछ कार्यकर्ताओं की गतिविधियों के विवरण भी रिपोर्ट के लीक हुए अंशों में दिये गये हैं।
इस रिपोर्ट के मीडिया में आने के तुरंत बाद से ही एक बहस चल पड़ी है कि क्या वाकई यह गैर सरकारी संगठन विदेशी पैसे की मदद से देश में नकली जनआंदोलन खड़े कर बड़ी विकास परियोजनाओं को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं। सुस्त आर्थिक विकास दर, लगातार चढ़ती महंगाई और भयानक बेरोजगारी से त्रस्त आम जनता के लिये ये खबर ज़हर बुझे तीर के समान है। लोग आगबबूला होकर इन एनजीओ के फेसबुक पेज और वेबसाइटों पर अपना गुस्सा निकाल रहे हैं। दूसरी ओर जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा एनजीओ की कार्य संस्कृति को लेकर सशंकित है पर चुप होकर ये तमाशा देख रहा है।
दरअसल यह पहली बार नहीं है जब एनजीओ पर विदेशी पैसों से संचालित होने के आरोप लगे हैं। पहले भी समय-समय पर इस तरह के खुलासे मीडिया में होते रहे हैं और यह संदेह व्य्क्त किया जाता रहा है कि बहुत से एनजीओ गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न हैं जिनमे पैसे के लेन-देन से लेकर अन्य हर तरह की अनियमितता और धोखाधड़ी शामिल है। आईबी की रिपोर्ट ने इन संदेहों का दायरा बहुत व्यापक कर दिया है लेकिन सवाल यह उठता है कि अचानक यह एनजीओ इस कदर कैसे प्रभावी हो गये कि वे देश की आर्थिक विकास दर को 2-3 प्रतिशत तक सुस्त करने के लिये उत्तरदायी हो गये।

राजनीतिक पार्टियां निष्क्रिय क्यों?
इस सवाल की तहें देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद सरकारों की घटती लोक कल्याणकारी भूमिका में निहित हैं। आर्थिक उदारीकरण के विकास का मॉडल अपनी शुरुआत से ही बेहद विवादास्पद रहा है और साल 2007 में आयी वैश्विक मंदी के बाद आम जनता ने इस मॉडल को लगभग नकार दिया है। महंगाई, बेरोजगारी, विकास दर, घरेलू बचत लगभग सभी अहम मोर्चों पर यह मॉडल पछाड़ें खा रहा है।
पूरे देश में इन नीतियों के खिलाफ गुस्सा है और असंगठित जनांदोलन हर जगह जबरिया कुचले जा रहे हैं। जल-जंगल-जमीन से लेकर पेंशन, ग्रेचुएटी और लोक कल्याणकारी योजनायें सभी को फिजूलखर्ची बता कर आम जनता पर एक के बाद एक करों का बोझ बढ़ता चला गया है। देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां इन आर्थिक नीतियों के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को संबोधित कर पाने में असमर्थ रही हैं। ऐसे में, एनजीओ एक ऐसे तबके के रूप में उभरा है जो लगभग हर आमफहम मोर्चे पर सरकारों, कॉरपोरेट या माफिया के खिलाफ खड़े होकर आम लोगों की मदद को आगे आता रहा है और समय-समय पर इनके हस्तक्षेप से आम लोगों की व्यक्तिगत और सामूहिक समस्यायें कम होती रही हैं।

राजनैतिक शून्य को भरते एनजीओ

एनजीओ ने उस खालीपन को भरा है जो राजनीतिक पार्टियों की भ्रष्ट कार्यसंस्कृति की वजह से और मीडिया के कॉरपोरेट हाथों में केंद्रित होने की वजह से आम जनता और सत्ताधारियों के बीच खड़ा हो गया है। बंधुआ मजदूरी, अंग व्यापार, महिला एवं बाल वेश्यावृत्ति, घरेलू हिंसा और मलिन बस्तियों में पनप रहे अपराधों से लेकर खनन और रियल्टी सेक्टर, स्वास्थ्य सुविधायें, शिक्षा क्षेत्र और तो और यातायात एवं परिवहन तक में फैली धोखाधड़ी, लूट-मार और अराजकता के खिलाफ भीएनजीओ के लोग आम जनता के साथ खड़े होकर उनके हक में लड़ रहे हैं। न्यायालयों ने भी कई बार पीआईएल के बहाने  एनजीओ द्वारा उठाये गये सामाजिक प्रश्नों और समस्याओं को संबोधित कर लोगों का साथ दिया है। इस तरह हर ओर से ठगी जनता धीरे-धीरे इन एनजीओ पर भरोसा करने लगी है। ऐसे बहुत से एनजीओ हैं जो इस तरह के कामों का संचालन देशी-विदेशी पैसे की मदद से कर रहे हैं।

पारदर्शिता जरूरी लेकिन निशाने पर केवल एनजीओ

ऐसे माहौल में आयी इस रपट ने एनजीओ पर लोगों के भरोसे को तोड़ा है लेकिन यह भी सच है कि इसी बहाने सार्वजनिक संस्थाओं के वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता का प्रश्न फिर प्रासंगिक हो गया है। सार्वजनिक संस्थाओं में न केवल एनजीओ बल्कि राजनीतिक पार्टियों भी आती हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों के बही-खातों में अपारदर्शिता सीधे चुनावी भ्रष्टाचार को जन्म देता है जो आगे जाकर लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करता है। इसलिये केवल एनजीओ ही क्यों बल्कि राजनीतिक पार्टियों के चुनावी चंदे या कोष की जांच भी होनी चाहिये क्योंकि सही मायने में ये एनजीओ राजनीतिक पार्टियों के हिस्से का कार्य कर रहे हैं। आम जनता की समस्याओं का प्रतिनिधित्व और जनआंदोलनों का नेतृत्व राजनीतिक पार्टियों का काम है फिर इस काम को छिनता देख कर भी यह राजनीतिक पार्टियां एनजीओ पर कभी सवाल क्यों नहीं करतीं। उनकी यह चुप्पी बेहद संदेहास्पद है।

विदेशी चुनावी चंदा मसला क्यूं नहीं

यह बेहद चिंतनीय मसला है कि देश में मल्टी नेशनल कंपनी पॉस्को का उड़ीसा के नियामगिरि जंगलों में सबसे बड़ा विदेशी निवेश है और उसने इन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस एवं भाजपा दोनों ही पार्टियों को चुनावी चंदा दिया है। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि पॉस्को की परियोजना को नियामगिरि के स्थानीय लोगों ने वन संरक्षण अधिकार कानून के जरिये आगे बढ़ने से रोक रखा है।
पिछली यूपीए सरकार ने परियोजना को आगे बढ़ाने के मकसद से इस कानून को लचीला बनाने की कोशिश भी की थी जिसकी आलोचना होने के बाद उन्हे अपने हाथ वापस खींचने पड़े। ऐसे समय में ग्रीपनीस जो मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में महान के जंगलों को बचाने के लिये स्थानीय लोगों के बीच सक्रिय है उसकी फंडिंग से जुड़े संदेह कहीं न कहीं हमारी सरकारों को भी संदेह के घेरे में खींचते हैं जिन्हे खुद किसी तरह के विदेशी चुनावी चंदे से परहेज नहीं है। इस रिपोर्ट ने ऐसे कई सवालों को खड़ा किया है जो एक लोकतंत्र में पूछे ही जाने चाहिये।
हमें यह भी सोचना होगा कि हमारे जल-जंगल-जमीन की लड़ाई क्यों विदेशी मदद से लड़ी जा रही है? आखिर हम इन मुद्दों को लेकर इतने खामोश और निष्क्रिय क्यों हैं?  कैसे हमारे जंगल और जमीन औने-पौने दामों में इन देशी-विदेशी कॉरपोरेट हाथों में चले जा रहे हैं और हम सवाल भी नहीं उठाते हैं।

कुछ एनजीओ के विदेशी पैसे से संचालित होने की यह खबर महज एक खबर नहीं बल्कि आदि से लेकर अंत तक भारतीय राजनीतिक पार्टियों की निष्क्रियता और कॉरपोरेट गोरखधंधों के नाभि-नाल संबंध के कारण पनपती नयी संस्कृति है और इस पर अंकुश के लिये सार्वजनिक संस्थाओं के वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता जरूरी है जिनमें एनजीओ से लेकर राजनीतिक पार्टियां और खेल समितियां तक सभी शामिल हैं अन्यथा थोड़े-बहुत हंगामें के साथ सब कुछ यथावत चलता रहेगा।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

UGLY: A visual epic of India’s Big Cities

While the storm is rage on for PK, UGLY comes silently and goes dramatically but not for those who have watched it. Kashyap created an epic this time perhaps first epic of visual media in India. An epic on metro lives which shows a complete chain of ugliness (darkest realities of our times). Story unfolds itself step by step like onion peeling. We go through the movie, shot by shot and enters into the zones of different layers of a big city like Mumbai in a zig-zag motion.

The narrative starts from a simple middle class family scene of a 10 year girl, Kali who is compelling her mother to ask his first father to take her for a walk. Tejasiwini Kolhapure played the role of Kali’s mother who is currently married to an IPS officer (Ronit Roy) after leaving his first husband, a struggling actor. Kali got kidnapped by an unidentified man and after that shot, the complete story runs through a search expedition to find her back. During this voyage we find many characters revealing their true colors, including her mother and father, the search goes on with confusion, tension and we get entrapped by noise of the roads, lies of lives and mistrust among relations.
Noise factor is again most powerful character of this movie like any other movie of the Anurag Kashyap.  Noise which is running like blood in modern lives, it’s grip is widespread from roads to homes and from relations to personal lives. In the end of the story Noise stops but it comes into our heart like a slap when we see the shot of Kali’s distorted body, right from that place from where she got kidnapped.

This movie reminds you ‘Shaitan’ movie but UGLY’s edgy sharpness, honest plot and dare to directly take on our system and society together will surely keep you mum. ‘Shaitan’ was also produced by Anurag Kashyap and directed by Vijay Nambiar. So the ‘shadow’ is here but Kashyap caught the Camera for a deeper digging of the subject with a simplistic storyline. He take their audience in the darkest and innocent parts of Mumbai alike via frame by frame and we feel the insensitive hell of a metro city beaming in our nerves and we are helpless to avoid it. The intensity of narrative cuts you like a cold knife and sometimes you feel like directly stabbed on your heart or got a heavy punch on your face.

Mubai ‘s colorless suburbs are the location for the shoot and of course this is a spectacular feature of Kashayap’s movies. A noisy editing of shots showed the unexplored, raw locations like middle class localities and slums, lifeless dens of a metro city. Plot is based in Mumbai but it could be establish in any metro city of the world. Story embeds the all sections of society like upper class, middle class and lower class in the form of characters.

We got stuck in the illusion of myth where reality and confusion are boiling in the same bowl, just straight from our eyes but still seem like virtual world. We run through the corridors of confusions, mistrust, greed and anger and at last find the Kali, like a next door girl with a distorted face and lifeless body.  

At the end, we feel distressed, bound to feel cold feet and blocked brains. UGLY reminded me the popular lines of Nida Fazli “ Har Aadmi mein hote hain Das bees Aadmi/ Jisko bhi dekhna ho kai baar dekhna”. Kashyap got success to create these lines visually and make us feel terrible realities.

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

साल 2015......नाउम्मीदी के अंधेरे में खौलता साज-ओ-सामान

कुछ बीता. कुछ बचा और ऐसा बहुत कुछ अनजाना रह गया जिसे बस हमारे चारों ओर तिरते ही रहना है, समय बीतने के एहसास को गिनते जाना एक खलबली पैदा करता है पर हम हर साल ऐसा करते हैं और इस साल भी जरूर करेंगे। पुराना साल जाते -जाते एक हमारे दिमाग र एक साल का आर्काइव छोड़ जाता है, हर किसी का रिकॉर्ड बिल्कुल अलग होता है। इन्ही रिकॉर्डों के आस-पास इंसान की दुनिया घूमती रहती है, पुराना नये से जुड़ता रहता है और बहुत कुछ छूटने के बोध के साथ-साथ बार-बार खुद-ब-खुद उभरता भी रहता है। साल 2015 की शुरुआत कुछ ऐसी ही है। जहां नयेपन  के अभाव में तिरती खामोशी और उल्लास की चाह में सुलगती रोजमर्राह की जिंदगी अब बिल्कुल मकबरे की जैसी लगने लगी है। एक चमकदार-शानदार मकबरा जिसे देखने हजारों-हजांर लोग रोज आते हैं पर जिसके अंदर कभी कुछ नहीं बदलता वो सदियों सदी से परिवर्तन की राह देखता हुआ आने वाली कई सदियों तक यूं ही  बने रहने को अभिशप्त होता है।

साल  2015 का आगाज मेरे जीवन में कुछ ऐसा ही है। फिल्मों, किताबों, घूमने और बतियाने के आवारा शौकों के बीच मध्यमवर्गीय गृहिणी का जीवन जीना कुछ ऐसा है जो दो अलग-अलग दुनियाओं में जीना। कभी यहां तो कभी वहां। एक दूसरे से निपट विरत, नितांत अबूझे इन दो दुनिया में एक आभासी और दूसरी वास्तविक है। वर्तमान युग की तरह आभासी दुनिया मेरी दिल की दुनिया है और वास्तविक दुनिया भी अब पहले की तरह वो दुनिया नहीं रही है जिसमें मैं खुच ब खुद बंध गयी थी, ये भी मेरी रची हुई और कहीं न कहीं चुनी गयी दुनिया है, इन्ही सब के बीच साल दर साल आ-जा रहे हैं। ऐसा लगता है समय मानो मेरे लिये ठहर गया है, दिन तो बीतते हैं पर अनुभव नहीं बदलते, सांस तो आती है पर बासीपन की सड़ांध समाई रहती है जीवन में। ताजगी, सार्थकता, सपनों के अभाव में जिंदा रहना केवल कुंठाओं के अगार में समाने जैसा लगता है।

कहने के लिये बहुत कुछ है, सुनने के लिये धीरज भी
पर रास्ता हां रास्ता नहीं मिलता
उम्मीदों के सोते को तलाश करते
एक और साल बीता
अब भी नहीं मिला कुछ ऐसा
जो बता सके मुझ में भी  है कुछ सार्थकता
इधर नया साल भी गले आ लगा
शंकाओं के लोकतंत्र में गुजरे एक और साल की याद दिलाता
हर बार की तरह क्या यह साल भी यूं ही चला जायेगा
मिठास के सपने बेचकर सैक्रीन घुला जहर खिलाकर
आशाओं की चाशनी में लपेटे बेहतर भविष्य के सपने दिखाकर
साल 2015 आया है
उम्मीद के धुंधले होते मौसम और हवाओं को साथ लेकर
कुंठाओं के बर्फानी तूफानों से लैस, अकेलेपन की सुनामी के साथ
देखो, खुद को बचाना जरूर है इस मार से
क्योंकि नया साल जिंदा रहने वालों के लिये आता है
मरे हुए शिकार को वो हाथ भी नहीं लगाता
तो नये साल का स्वागत इस आस के साथ
कि अगले साल भी टिक सकूं इस नाउम्मीदी के गणतंत्र में
लिख सकूं गीत उदासी और मायूसी के


रविवार, 10 मार्च 2013

अर्थव्यवस्था और एशियन ब्राउन क्लाउड

कुछ होने और कुछ ना होने के बीच एक बेचैनी होती है जो बाहर से एक धुंध की तरह दिखती है, ऐसा लगता है कि आसमान में भूरे बादल छा गये हों जिन्हे देख कर ये तय करना मुश्किल होता है कि ये बरसेंगे या सिर्फ छाये रहेंगे। पयार्वरण से जुड़े लोग एसे ABC परिघटना या एशियन ब्राउन क्लाउड के तौर पर भी समझ सकते हैं। एशिया में पानी बरसने के पैटर्न बदलने के पीछे इसे एक जिम्मेदार कारक के रूप में परिभाषित किया जाता है। ऐसी ही धुंध भारत की अर्थव्यवस्था पर छायी हुई भी लगती है। राजनीतिक-क़ॉरपोरेट प्रदूषण से जन्मे इस भूरे बादल को  छांटना आसान नहीं है।

बाहर से ये धुंध अक्सर कन्फ्यूजन की तरह दिखती है पर इसके परिणामों के बारे में तय करना आसान नहीं है, हां जब हम इससे बाहर निकल जाते हैं तब जान पाते हैं कि इसने हमें क्या दिया या हमसे क्या ले लिया। वैश्विक मंदी के बाद (2007-2008) लगभग हर साल यूपीए सरकार ने हमारी अर्थव्यवस्था पर इस भूरे बादल के प्रभाव को नगण्य ही बताया है इसके बावजूद असर बढ़ता गया है और हालिया बजट पेश करने के साथ ही वित्त मंत्री जी ने 'सबसे बुरा दौर' गुजर जाने का आश्वासन भी दिया है।

इस दौर को आजकल की शब्दावली में अक्सर ट्रांजिशन फेज कहते हैं। अब ये शब्द बेहद कॉमन हो गया है। जहां कुछ भी समझ में आना बंद हो जाये वहां दन्न से इसका इस्तेमाल करने का प्रचलन है। इससे आपके विष्लेषण में एक चमकीला बौद्धिक रैपर लिपट जाता है जो अंदर के सामान को बाहरी हवा और नमी के असर से बचाये रखता है और अंदर का सामान ताजा बना रहता है-एक टिन फॉयल की तरह। इसकी उपयोगिता के बारे में आधुनिक गृहणियां अच्छे से जानती हैं।

देखना ये है कि इस ट्रांजिशन फेज के गुजर जाने के बाद हमारे हाथ क्या लगता है और इसके बारे में भविष्यवाणी करना सबसे आसान होते हुए भी सबसे मुश्किल है। 



यूथ, जॉब, लव और लिव-इन

ये कुछ-कुछ वैसा है जैसे अंधेरे में रास्ता ढूंढने के लिए कोई हाथ-पैर मारता है। बस कुछ ऐसा ही अपने चारों ओर महसूस होता है। हर कोई अपने लिए एक स्मार्ट जॉब की तलाश में लगा है। जिसके पास जो है वो उसे अपनी काबिलियत से कम लगता है और उसे उससे ऊपर का कुछ पाना है। अपनी उम्र के सभी लोगों के बीच कुछ ऐसी ही बैचेनी मुझे दिखती है। कभी ये बेचैनी जॉब से जुड़ी होती है या फिर हमारी लाइफ की दूसरी सबसे बड़े प्रॉब्लम - लव से।

हमें चाहिए एक स्मार्ट जॉब

हमें बचपन से बस यही सिखाया गया है, यही वो मंत्र है जिसे हमने बचपन से रटा है। यही वो तंत्र है जिसकी हम अटूट कड़ी हैं। यही वो लक्ष्य है जिसके लिए हमारा जन्म हुआ है। जॉब हम मिडिल क्लास यूथ की ऐसी कमजोरी है जिसे पाने में हमारी जिंदगी का आदा हिस्सा गुजर जाता है। एक बार जब मिल जाती है तो हमारी पूरी जिंदगी जॉब के इर्द-गिर्द घूमती है।

21वीं सदी के इनक्रेडिबल इंडिया में यह एक निहायत बोगस सोच सुनाई देती है जहां देश के लीडर्स , साल 2020 तक यूएनएससी में एक सीट पक्की करने का जुगाड़ कर रहे हैं वहां देश की युवा आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा एक नौकरी की तलाश की मानसिकता से ऊपर ना तो कुछ सोच रहा है ना ही कर रहा है। बट हम क्या कर सकते हैं पूरे दिन इंटरनेट पर जॉब साइट्स के पेज न्यूज बड़ाने के बाद भी एक ढंग की जॉब पाना आसान नहीं है। दूसरा अगर जॉब में कोई पंगा हो गया तो नी जॉब ढूंढना तो और भी मुश्किल है।

सरकारी चैनलों और सरकारी मैगजीन खोलने पर ऐसा लगता है जैसे जॉब हर ओर से ट्यूबवेल से निकलते पानी की तरह चारों ओर बह रही हो पर इन्हे बंद करते ही यह ट्यूबवेल तुरंत सूख जाता है। देश के जीडीपी में सबसे बड़ा शेयर सर्विस सेक्टर का है। देश की हायली एजुकेटेड आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इसी सेक्टर में काम कर रहा है। इसीलिए हमारे जैसे ज्यादातर यूथ सरकारी और प्राइवेट सर्विस  सेक्टर में ही दिखाई देते हैं लेकिन दोनों सेक्टर की स्टोरी बिल्कुल एक है।

प्राइवेट सेक्टर में या तो हम काम के बोझ से उकता जाते हैं या बॉस की चापलूसी में पिछड़ जाते हैं और हाइक मिल जाता है ऐसे बंदे को जिसने शर्तिया आप से कम किया है और बॉस के केबिन में उसकी अटेंडेंस रेग्युलर रही है। इसलिए अगर हमें सिर्फ काम करना है और कम्युनिकेशन स्किल नहीं चमकानी आती तो फिर से सरकारी नौकरियों के एक्जाम देने ही होंगे।


वैसे ही रिसेशन के दौर में सराकारी क्षेत्र में आये सिक्सथ पे कमीशन ने सरकारी नौकरी के चेहरे का फ्रूट फेशियल कर दिया है और प्राइवेट नौकरी का गुणगान करने वाले भी मानने लगे हैं कि मंदी ने उनकी वाट लगा दी है। प्राइवेट नौकरियों में लो पेड जॉब ढेरों हैं लेकिन उन में कोई तभी टिका रह सकता है जब वह इस कल्टर का हिस्सा बनने को तैयार हो। आप में ज्यादा आगे बढ़ने की इच्छा ना हो तो ये बहुत अच्छा है। लेकिन अगर ईमानदारी से काम करके आगे बढ़ने की ख्वाहिश है तो बस आप की आगे की जंग अब बहुत मुश्किल है............................

इश्क वाला लव 

देश का युवा इसी पहेली को सुलझाने में लगा है, यहां से उस कन्फयूजन की शुरुआत होती है जिसका प्रभाव आप हमारी जिंदगी के हर पहलू पर देख सकते हैं। निजी जिंदगी में अकेलापन और परिवार से दूरियों ने हमें अपने समाज से या तो कोसों आगे ढकेल दिया है या कोसों पीछे...............सच तो ये है कि बीच में तो बस कन्फ्यूजन ही है। दरअसल अगर हम आगे चले जाते हैं तो हमारी फैमिली पीछे छूट जाती है और अगर पीछे रहने की कोशिश करते हैं तो हम अपनी लाइफ में आगे ही नहीं बढ़ पाते और अपने सोशल सर्किल से बहुत पीछे चले जाते हैं।

हमारी जिंदगी में लव हमेशा मुश्किल रहा है, एक भंवर जैसा, इसीलिए हम में से बहुतों का रिलेशनशिप स्टेटस ही कॉंप्लीकेटेड हो गया है। ये कॉंप्लीकेटेड क्या है, क्या ये हमारा कन्फ्यूजन है या अनिर्णय है जहां हम ये तय नहीं कर पाते कि हमें सिंगल रहना है या फिर कमिटेड। अगर कमिटेड भी  हैं तो फिर आगे के सवाल शुरू हो जाते हैं मतलब मेरिज एंड ऑल ...................

 इतना सब सोचने की फुर्सत किस के पास है।  हमारे पास इतना टाइम कहां जो ये सब सोच सकें हम। हमें तो वीकेंट में पार्टी करनी होती है जिससे पूरे वीक हम 9 घंटे की ज़ब में अपना बेस्ट दे सकें। हमारे अफेयर्स यहीं पर शुरू होते हैं और फिर यहीं-कहीं खत्म भी हो जाते हैं। इसीलिए जब अफेयर सीरियस होने लगता है हम डरने लगते हैं, जब दिल बेचैन हो जाता है हम ब्रेकअप कर लेते हैं और फिर उस ब्रेकअप से उबरने के लिए हमें फिर एक रोमांस करना होता है क्योंकि यही वो टॉनिक है जो हमारी लाइफ में सक्सेज लाता है।

लिव-इन

इसीलिए हमें रास आता है जिम्मेदारियों पर पहले एक समझ बनाना और फिर लाइफ में साथ-साथ आगे जाना और इसलिए जरूरी हो जाता है लिव-इन। क्यों कि अगर हम शादी करना भी चाहें तो वहां करने से लेकर इसे खत्म करने तक हजार पचड़े हैं। लिव-इन इश्क वाले लव की हैप्पी इंडिग है। यहां दोनों के लिए स्पेस है, शेयरिंग है और लाइफ को जीने के दो तरीके भी - वर्चुअल और रियल। हम इन्ही में कहीं अपनी लाइफ के कीवर्ड्स तलाश लेते हैं जो डिप्रेस्ड होने पर हमारे लिए पेनकिलर का काम करते हैं।

दरअसल यही तो हमारी रियल लाइफ है जो दूसरों को वर्चुअल लगती है....................

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

मेरे हिस्से का भारत..........


 यूं तो हम सब बचपन से ही अपने-अपने सपने बुनते हैं और उन्ही के हिसाब से हमारे भविष्य की इबारतें समय की छाती पर लिखती जाती हैं, इन सपनों में कई सच होते हैं, कई हमारे लिए 'हथेली में चांद' साबित होते हैं पर हर किसी की अभिलाषा होती है कि एक बार वो अपने हिस्से के चांद को अपनी मुट्ठी में भर कर देखे। मेरे पास भी ऐसे कई सपने हैं और इत्तफाक की बात ये है कि ज्यादातर हथेली में चांद भरने जैसे ही रोमैंटिक हैं। 

मुट्ठी में चांद और ग्लोबल विलेज

चांद को अपनी मुट्ठी में करने के सपने ना जाने कितने सालों से इंसान देखता रहा और वैज्ञानिकों ने इस में एक दिन सफलता भी पा ली फिर भी हम (भारतीय) उसे अपनी उपलब्धि नहीं मानते, क्यों भला ? जाहिर सी बात है कि जब इंसान चांद पर पहुंचा तो वह मानव जाति की जीत थी पर उस में भारत का एक राष्ट्र के बतौर कोई हिस्सा नहीं था। इसलिए हमें भी अपने हिस्से का चांद चाहिए है और इसी कोशिश में हमारे (भारतीय) वैज्ञानिक रात-दिन एक कर रहे हैं। 

अब सपनों की करामात ये है कि ये अपने और पराये के भेद को समझते ही नहीं हैं। अक्सर कहने लगते हैं कि जब इंसान एक बार चांद पर पहुंच गया तो हमें वहां अलग से जाने की क्या जरूरत है खिर हम सब ग्लोबल विलेज (विश्वग्राम) के वासी जो हैं। 'वसुधैव कुटुंबकम' हमारी नीति है और जब हम पूरे विश्व को अपना परिवार समझते हैं तो आखिर इतने बड़े परिवार का एक-एक सदस्य अगर चांद पर जाने की जिद करने लगे (जैसे हमारे श्रीराम ने की थी कि 'मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैंहो' ) तो भला धरती के एक-एक बच्चे की मुट्ठी में चांद कैसे रखा जा सकता है। 

मैने भी सपनों की बातों को मुंहतोड़ जवाब देने की सोच ली और तुरंत कहाकि ग्लोबल विलेज में भी अपने-पराये का भेद कैसे खत्म हो सकता है, वसुधैव कुटुंबकम हमारी नीति है तो पर ये तो वैसे ही है जैसे किसी गांव को संपूर्ण रप से एक परिवार माना जाता है पर उनके व्यक्तिगत सुख-दुख भी तो होते हैं।  इसलिए इस कुटुंब के एक सदस्य होने के नाते वसुधा में एक हिस्सा भारत का भी बनता है। उसी तरह भारत का एक वैज्ञानिक भी अगर चांद पर पहुंच जाये तो ये पूरे भारत की उपलब्धि है, हर व्यक्ति ना चांद पर जा सकता है ना उसकी जरूरत है। 

मेरे हिस्से का भारत भी कुछ ऐसा ही है, जहां पूरे देश की उपलब्धियों में अपने-अपने हिस्से की मांग करते हुए मेरे साथ ना जाने कितने हाथ खड़े हैं, जिन्हे इस देश के वासी होने के नाते अपने-अपने हिस्से और अपनी-अपनी जमीन चाहिए। ये भारत के हिस्से हैं र इलिए भारत में भी उनका हिस्सा है पर ये बातें सपनों की हैं। हकीकत इस से बहुत दूर लगती है, लेकिन बहस जारी है, संघर्ष जारी है, भारत की उपलब्धियों को उन मुट्ठियों तक पहुंचाने की जो अपना हिस्सा पाने की उम्मीद के साथ खुलना सीख रही हैं।