उम्मीद
की निर्भयायें: पुस्तक समीक्षा
'दिल्ली गैंग रेप' के बाद
का विमर्श
‘स्मार्ट बुक’
यानी ‘साझा चिंतन’
16 दिसंबर 2013 को, राजधानी
दिल्ली में घटे एक वीभत्स बलात्कार कांड ने देश की सोयी हुई आत्मा को झिंझोड़ दिया।
इस दुर्घटना ने मध्यवर्ग की दुखती रग को छू दिया। महिला आंदोलनों की सतत यात्रा
में यह बेहद अहम पड़ाव रहा। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। बलात्कार पर केंद्रित
इस आंदोलन ने स्वत:स्फूर्त ढ़ंग से
प्रस्फुटित होने के बाद भी समूचे देश को हिला दिया। देश के युवा वर्ग को एकजुट
होकर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिये यूं सड़कों पर उतरते देखना
बिल्कुल नया था।
इस आंदोलन ने देश में
एक नयी चेतना का संचार किया। विरोधाभासी भारतीय समाज के बहुत से कोने अब भी इस
चेतना से अछूते हैं। फिर भी इस आंदोलन ने तय कर दिया कि बलात्कार या यौन हिंसा के मुद्दे पर जनता का बांध टूट गया है। इस आंदोलन ने एक ‘साझे चिंतन’
को जन्म दिया। इस चिंतन को एक किताब के रूप में संजो कर संपादक रोहित जोशी ने इसे
हमारी साझी उपलब्धि बना दिया है। ‘पत्रकार
प्राक्सीज’ के नाम से वेबसाइट चलाने वाले
रोहित ने इन लेखों को अपनी साइट पर बेहद पसंद किये जाने के बाद किताब के रूप में
संजोने का फैसला लिया। अब यह किताब ‘उम्मीद
की निर्भयायें’ के नाम से हम सबके बीच
मौजूद है।
'यौन हिंसा' हमारे चारों
फैला एक अदृश्य निर्मम सत्य है। जिसके साथ जीने और उसकी लगातार अनदेखी करने की हमने
आदत डाल ली है। महिलाओं पर यौन हिंसा पूरे विश्व में एक 'दमनकारी औजार' की शक्ल
अख्तियार कर चुका है। हमारे देश में मौजूद जातीय, वर्गीय और आर्थिक असमानतायों की
वजह से यौन हिंसा एक महामारी की तरह फैल रही है।
यह किताब बलात्कार पर
एक खोजी गाइड है जो इसके हर पहलू को संजीदगी से टटोलती है। दिल्ली गैंग रेप केस के
बाद इस तरह के अनेक लेखकों और विचारकों को अपने विचार रखने का मौका मिला जो बाजार
की चकाचौंध के आगे गुमनाम हो चुके हैं लेकिन उनके प्रयासों और विचारों का संघर्ष
जारी है। किताब में उनके विविध सम-सामयिक विचारों को पिरोया गया है। ये आलेख, हमारे
समाज की पितृसत्तात्मक संरचना में रची-बसी यौन हिंसा की ग्रंथियों की पड़ताल करते हैं।
सदियों से मौजूद लैंगिक गैरबराबरी के कारणों को उघाड़ते हैं और साथ ही यौन हिंसा
मुक्त, समानता की दुनिया रचने का रास्ता भी दिखाते हैं।
किताब को मुख्य रूप से
5 भागों में बांटा गया है। 19 लेखों के जरिये इस आंदोलन से जुड़े लेखकों और
कार्यकर्ताओं ने अपने विचारों को हमारे साथ साझा किया है। इस आंदोलन ने समाज में
महिलाओं के लिये मौजूद मुख्य दो दृष्टिकोणों को सतह पर ला दिया। एक ओर उदार
पुरुषवादी चिंतन जो अपने घर की महिलाओं की यौनिक असुरक्षा को लेकर चिंतित रहता है।
दूसरा चिंतन जो ज्यादा गहराई में जाकर, जड़ों में मौजूद असमानता को चीन्हता है। ‘बेखौफ आजादी की मांग’ इस दूसरी धारा की मुख्य मांग थी।
दरअसल किसी आंदोलन में
एकजुट हुए लोग कभी भी सोच के एक समान स्तर पर नहीं होते लेकिन आंदोलन के दौरान
उनके संगठित प्रयास, वैयक्तिक विचारों के खांचे से निकल कर सामूहिक चेतना के स्तर
पर पहुंचते है। ऐसे आंदोलन समाज को एक नजर देने में सक्षम होते हैं। इस दृष्टि से
यह आंदोलन सामाजिक रूप से बेहद सफल रहा। इसने लोगों के बीच महिला असुरक्षा को एक केंद्रीय
मुद्दे के रूप में स्थापित किया और यौन हिंसा के मूल कारणों यानी पितृसत्तात्मक
संरचना के सांस्कृतिक राजनैतिक और सामाजिक पक्ष को चर्चा कें केंद्र में ला दिया।
किताब की शुरुआत में ही
दो चर्चित बलात्कार कांड पीड़िताओं के पत्र दिये गये हैं जिसमें उनका संघर्ष,
जीवटता, घटना से उपजी निराशा पर सबसे बढ़ कर उम्मीदें है। सोहेला और सूर्यानेल्ली की
लड़की की कहानियां खुद ब खुद हमें उनकी पीड़ा से जोड़ती हैं। शुरुआती अध्याय ‘इस उबाल के मायने’ में आंदोलन में सक्रिय दो राजनीतिक लेखक क्रमश: कविता कृष्णन और आनंद प्रधान के आलेख हैं।
तीसरे अध्याय में ‘बलात्कार का समाजशास्त्र’ नाम से मोहन आर्या का विस्तृत आलेख है। मोहन आर्या
यौन हिंसा को सामाजिक-राजनैतिक संरचना में मौजूद आर्थिक-लैंगिक गैरबराबरी का
परिणाम मानते हैं इसलिये इसके नाश के लिये भौतिक ढ़ांचे को नष्ट करना जरूरी मानते
हैं। अन्य आलेखों में धर्म से लेकर भाषा, मीडिया और संस्कृति की पड़ताल है कि किस
तरह यह सभी पितृसत्तातमक समाजों में एक महिला विरोधी उपकरण में तब्दील हो जाते हैं।
‘रेप बनाम बलात्कार’ यानी चौथे अध्याय में ‘इंडिया बनाम भारत’
में मौजूद यौन हिंसा या बलात्कार के विविध पहलुओं और संस्तरों की जांच की गयी है।
इन आलेखों से साफ जाहिर होता है कि पुरुष वर्चस्व पर आधारित सामंती और पूंजीवादी
समाज, महिला को बराबरी का दर्जा देने में
अक्षम हैं। परिवार हो या राज्य महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा का इस्तेमाल उन्हे
लगातार दोयम स्थिति में रखने के लिये किया जाता है। राज्य तंत्र जैसे पुलिस,
विधायिका और डॉक्टरों ने दोयम सोच को एक औजार का रूप में विकसित कर लिया है। इस
तरह लोकतंत्र में महिलाओं को उनके अधिकारों की दावेदारी से रोकने के लिये यौन
हिंसा का बार-बार इस्तेमाल किया जाता है।
जाति हो या पैसा, रसूख
वाले बलात्कारियों के आगे हमारी न्याय व्यवस्था को लकवा मार जाता है। इसलिये न्याय
व्यवस्था, यौन हिंसा के खिलाफ कितनी कारगर है और उसकी सीमायें क्या है, जे एस
वर्मा कमेटी की रिपोर्ट की पड़ताल के जरिये इस मुद्दे को बारीकी उठाया गया है।
इसके अलावा ‘टू फिंगर टेस्ट’ जैसे मेडिकल परीक्षण अभी तक महिलाओं के चरित्र पर
सवाल उठा कर कैसे सालों से बलात्कार को जायज़ ठहराते आये हैं और महिलाओं को
पुरुषों के अपराधों की सजा देते आये हैं, इसका विश्लेषण भी अंतिम और बेहद जरूरी
आलेख में मौजूद है।
यह किताब युवा पीढ़ी और
वर्तमान समाज के लिये एक ‘स्मार्ट बुक’ है जो इन विचारशील लेखकों से हमारा संपर्क जोड़ती
है। हमारे समय के सबसे ज्वलंत प्रश्नों पर लेखकों के विचारों संजोने के कारण यह
बुक खास यानी ‘स्मार्ट’ हो गयी है। यह आलेख, उनके विचारों के शॉर्ट
नोट्स हैं। इनसे महत्वपूर्ण सवालों को सुलझाने की दिशा मिलती है। ‘साझे चिंतन’
से उपजी यह किताब मौजूदा समाज की यौन हिंसा पर सामूहिक संवेदनशील चिंतन विकसित करने की खास जरूरत को पूरा करती है।
यह आलेख अपने मूल स्वरूप में गांव-जहान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। यहां पर इसके कुछ अंशों को संपादित करके डाला गया है। यहां साझा करने का उद्देश्य अपने सभी आलेखों को एक जगह संजोना है।